
“हमारी आँखें भगवान की प्रतीक्षा में हैं। क्या कोई आएगा और मुझे और मेरी बेटी की रक्षा करेगा?” कांपती हुई आवाज़ में एक महिला ने कहा। उनके पास कुछ लोग आए थे और उन्होंने यह कहा था कि जब भी वह अगली बार आएँगे तो कोई भी उन्हें बचाने के लिए नहीं सामने नहीं आएगा।
एबार असल खेला होबे!
मैं अपने एक मित्र के सुझाव पर बंगाल में चुनाव के बाद हुई हिंसा को समझने के लिए जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं के विचारों और पीड़ा को सुन रहा था। एक स्त्री अपनी व्यथा सुना रही थी। मित्र का कहना था कि “आप उनके दर्द को समझ सकते हैं और उनका साथ दे सकते हैं”
जिस महिला से मैं बात कर रहा था, वह बंगाल की एक राजनीतिक कार्यकर्ता थी। उसने चुनावों में इस आस के साथ चुनाव प्रचार में भाग लिया था कि उसे प्रांत में नित होने वाली हिंसा से मुक्ति मिलेगी। परन्तु उसका उम्मीदवार इस राजनीतिक युद्ध में पराजित हुआ और अब उस महिला के घर को चारों ओर से राजनीतिक प्रतिद्वंदियों से घिरी हुई थीं। भीड़ यह कहकर वापस गयी थी कि वह जल्दी ही वापस आएंगे और गोनिमोतेर माल लेकर ही जाएंगे। (बंगाल में जवान बेटी को लेकर यह शब्द प्रयोग करते हैं)।
“क्या वह यह जगह छोड़कर कहीं और नहीं जा सकती?” समूह के एक सदस्य ने पूछा।
“नहीं, हम नहीं कर सकते,” उसने जवाब दिया। “यह मेरा’ भीते ’है, मेरा पैतृक घर है। हम कहां जाएंगे और कब तक वहां रहेंगे। हम यहां मरना चाहते हैं। मेरे माता-पिता पूर्वी बंगाल से भाग आए थे। मैं कितनी बार भागूँगी और कहाँ तक? वह हर जगह हैं। मैंने कुछ स्थानीय लड़कों से बचाव के लिए कहा है। अगर वे आते हैं तो हम बच जाएंगे परन्तु भीड़ के आने पर तो वह बहे विवश हो जाएंगे। ”
“क्या पुलिस से सहायता नहीं ली जा सकती है?” किसी ने पूछा।
सभी को लगा कि यह बेहद ही असंवेदनशील प्रश्न है। उसने कहा, “आज कोई भी बंगाल में पुलिस से मदद नहीं मांग सकता। गुंडे यह कहकर गए हैं कि:आज बादे नईं कल आस्बो।” मतलब हम वापस आएंगे।
वह बोली “मुझे मेरे हाल पर ही छोड़ दीजिये। मैंने अपना सबक सीख लिया है। मैं फिर से कभी भी उस पार्टी के लिए काम नहीं करूंगी जिसके नेता मेरे लिए खड़े नहीं हो सकते। आप उस औरत को नहीं जानते, वह साफ़ कह चुकी है कि जिस जिस ने उसे वोट नहीं दिया है, वह सबका हिसाब रखेगी और वह अपनी बात पर खरी उतरती है। ”
वह अकेली नहीं है। आज पश्चिम बंगाल में हिंसा का सामना कर रहे हज़ारों लोग यही सोच रहे हैं। यह एक ऐसा आतंक है जो इकोसिस्टम के साथ बंगाल में विकसित हुआ है । ठीक वैसे ही जैसे तीस साल पहले कश्मीर में था, जब हज़ारो लोग सड़क पर उतर आए थे और उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं को अपनी महिलाओं को छोड़कर भागने को कहा। अस्सी साल पहले नाजी जर्मनी में भी ऐसा ही हुआ था जब यहूदियों का शिकार किया गया था। अगर आज के बंगाल में गोनिमोतेर माल के डर को लेकर जो डर है, उसके बारे में यदि सर्वे किया जाए तो सभी चौंक पड़ेंगे।
सोल्झेनित्सिन ने एक बार कहा था, “जो आदमी गर्म होता है, वह उस आदमी के दर्द को महसूस नहीं कर सकता जो ठंडा है।” जिस महिला ने हमसे बात की, या फिर जो लोग पिछले दिनों मारे गए, क्या उनके दर्द को शेष भारतीयों द्वारा अनुभव किया जाएगा? उसके जैसे लोगों के पास सन्देश पहुँच चुका है कि चुपचाप घर पर रहो, और अपनी सीमा में रहो। ‘
हालांकि आतंक की संस्कृति ने राज्य को हर ओर से घेर लिया है, परन्तु अधिकतर भारतीय पूर्णतया मौन हैं। ठीक वैसे ही जैसे वे कश्मीर में मौन साधे रहे थे। भारतीयों ने देश के अन्य हिस्सों में हत्याओं को बेहद उदासीनता एवं निरपेक्षता के साथ देखा! यह एक ऐसा प्रतिबन्ध या उदासीनता का भाव है जिसे हन्ना अर्ड्ट ने ‘बुराई के प्रति उदासीनता कहते हैं। उन्हें यह लगता ही नहीं है कि उद्देश्य डर या चुप्पी पैदा करना होता है। हम हर बार पंगु बनकर ही राजनीतिक हत्याओं की खबरों पर प्रतिक्रिया देते हैं।
हिंसा के कई शेड होते हैं। राजनीतिक हिंसा में जो उद्देश्य होगा है उसे अपराधियों द्वारा छिपाया जाता है ताकि पीड़ित, गवाह को उचित सबक मिले और वह उन्हीं के अनुसार अपने कदम उठाएं। राजनीतिक हिंसा में, एक समूह दूसरे को सबक सिखाने का प्रयास करता है, जहां अपराधी यह मानता है कि वह किसी और तरीके से जीत नहीं सकता। यह एक ऐसी हिंसा है जो हमारे जीवन का हिस्सा बनती जा रही है। यह हिंसा कभी भी यथास्थिति को परिवर्तित करने या फिर समुदायों के मध्य शक्ति संतुलन बदलने की बात ही नहीं करती, और सही कहा जाए तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसकी सरकार है। सत्ता और सरकार दो अलग अलग ध्रुवों पर कई तरह के झूठ बोल सकती हैं। अभी जो खेला होने वाला खेल चल रहा है, वह दूसरों को मारने से पैदा होने वाली एक खुशी है। जैसा कि कोई भी नरसंहार शोधकर्ता आपको बता सकता है कि ज्यादा संख्या के लिए इसे मजेदार गतिविधि के रूप में जोड़ा गया है।
जब वह खुद को पीटने वाले पति से कोई स्त्री यह कहती है कि वह अब और अपमान सहन नहीं कर सकती है और विवाह विच्छेद चाहती है तो उसी महिला को सबसे अधिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। उसका पति यह बताने के लिए उसके साथ और हिंसा करता है कि वह उसकी दास है एवं यह भी इंगित करता है कि दासों को बात रखने का अधिकार नहीं होता और जब दास अपनी औकात से अधिक मांगते हैं तो उन्हें उनके वास्तविक स्थान तक पहुंचा दिया जाना चाहिए। समानता को तब तक सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है जब तक यथास्थिति में परिवर्तन नहीं होता और दासों में परिवर्तन का विमर्श उत्पन्न नहीं होता। जागरूकता खतरनाक है क्योंकि व्यक्ति को प्रेरित करती है कि वह असमानताओं के बारे में बात करे एवं अधिकारों के विषय में बात रखे।
भारत में आज दो समुदायों के बीच सत्ता में एक उल्लेखनीय परिवर्तन हो रहे हैं। एक जो हजार साल तक दास रहा और दूसरा वह जो खुद को इन दासों के समकक्ष नहीं मानता। जिसके हाथ में शासन हो सकता है, वहीं दूसरे के हाथ में सत्ता तो अपराध और धर्मनिरपेक्षता यह संतुलन बनाते हुए कार्य करते हैं। जब इस शक्ति संतुलन में गड़बड़ी होती है जैसा बंगाल में हुआ तो उसे असाधारण तरीकों से ही नियंत्रण में लाना चाहिए।
पिछले कुछ दिनों में हुई हिंसा निरर्थक नहीं है। यह एक ऐसे संगठित नरसंहार की भांति है जैसे नाज़ियों ने किया और चेतावनी दी कि जिंदा रहना है तो आवाज़ बंद करके ही रहना होगा। यह एक चुप्पी है जिसे आपको बनाए रखना है यदि आपको धर्मनिरपेक्ष भारत में जीवित रहना है, और यह एक ऐसा सन्देश है जिसे आज तक चुनौती नहीं दी जा चुकी है। ‘काम आपको स्वतंत्र बनाता है, यही यहूदियों के लिए वह नारा था, जो आकर्षक था और किसी भी प्रकार का कोई नुकसान नहीं था।
राजनीतिक हिंसा अक्सर एक श्रृंखला का हिस्सा होती है, जो पीड़ित से कहती है कि वह अपनी औकात न भूलें और सीमा पार न करें। 2002 की हिंसा के बाद, किसी ने भी ट्रेन में जलते लोगों की चीख पुकार के बारे में बात नहीं की, जबकि उनकी चीखें शायद ट्रेन घेरकर जलाने वालों के बीच ही खो गईं थी। कश्मीर की हिंसा में पीड़ितों की आवाज़ को बाहर नहीं आने दिया गया जिससे विश्व चैन से सो सके।
हम ऐसी रुलाई को अनदेखा कैसे कर सकते हैं? हमें यह आती हुई क्यों नहीं दिखती है? क्या इसका उत्तर भी हमारे इतिहास की समझ में ही छिपा हुआ है?
एक नेता को इस बात से जाना जाता है कि वह अपने लोगों के लिए संकट में कैसे साथ खड़ा होता है और कैसे आपदा की घड़ी में उनके घावों पर मरहम लगाता है। दुर्भाग्य से हर भारतीय नेता इसमें विफल रहा। गांधी जी ने तो अपना ज्ञान बघारते हुए अपने लोगों से कह ही दिया था कि वह अपनी औरतों के बलात्कार और अपने क़त्ल के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें। क्या हमने कभी सोचा है कि इस तरह के संदेशों का हमारे समाज की पीढ़ियों पर क्या प्रभाव पड़ा है? पीढ़ी दर पीढ़ी नेता हमारी रक्षा में विफल रहे हैं? क्या हमारे नेताओं की यह चुप्पी यह मौन किसी संत के जैसा मौन है क्योंकि कहा गया है कि एक चुप हज़ार सुख। आने वाली पीढ़ी या इतिहास इसके लिए हमारा आंकलन कैसे करेगी मुझे हैरानी होती है?
इन्हीं सबके मध्य जिस स्त्री को उन पुरुषों ने गोनिमोतेर माल की धमकी दी है, उसकी निराशा और हताशा कम नहीं होगी। और यह बंगाल में यह लगभग उन समस्त लोगों के दिल की बात है जिन्होनें बंगाल में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। यह निराशा आने वाले महीनों में बढ़ेगी और जल्द ही हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाएगी। यह 2021 के बाद की बंगाल की नई वास्तविकता है और भारत की नई वास्तविकता बनने की ओर अग्रसर है। यह वक्तव्य कि “जो बंगाल आज सोचता है, वह भारत कल सोचता है” शायद सच होने को है, बस उसमें सोच के स्थान पर “शोक” लगाना होगा।
यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं
Rajat Mitra is a Psychologist, Speaker and Author of ‘The Infidel Next Door’